Friday, March 29, 2024
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अकल्पनीयः तिब्बत-ब्रह्मपुत्र का नक्शा तैयार करने वाले Nain Singh Rawat की कहानी!

Nain Singh Rawat – गुलाम भारत के ऐसे किस्से कम ही सुनाई देते हैं जब अंग्रेजों ने किसी भारतीय के काम का लोहा माना हो या उसकी तारीफ की हो. अंग्रेजों के मन में पंडित नैन सिंह रावत ( Nain Singh Rawat ) के लिए बड़ा सम्मान था. नैन सिंह रावत ( Nain Singh Rawat ) का जन्म उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में हुआ था. यहां मुनस्यारी तहसील के मिलम गांव में 21 अक्तूबर 1830 को जन्मे थे. उनके पिता का नाम अमर सिंह था. पंडित नैन सिंह रावत की शुरुआती शिक्षा गांव से ही पूरी हुई. आर्थिक तंगी की वजह से वह जल्द ही अपने पिता के साथ काम में उनकी मदद करने लगे. उनके पिता भारत-तिब्बत के बीच चलने वाले पारंपरिक व्यापार से जुड़े थे. इस वजह से उन्हें अपने पिता के साथ तिब्बत में कई जगहों पर जाने और उसे समझने का मौका मिला.

तिब्बत की संस्कृति में रच बस गए थे नैन सिंह रावत

नैन सिंह रावत ( Nain Singh Rawat ) ने न सिर्फ तिब्बती भाषा सीखी बल्कि वहां की संस्कृति में भी रच बस गए, इसी ने आगे की जिंदगी में उनकी काफी मदद भी की. हिंदी और तिब्बती के अलावा वह अंग्रेजी और फारसी की भी अच्छी समझ रखते थे. रावत भोटिया जनजाति से ताल्लुक रखते थे. उत्तराखंड में राजपूतों की संख्या बहुत कम थी इसलिये वहां के ब्राह्मणों ने अनेक जनजातियों को राजपूत के रूप में उनका संस्कार किया. भारत की पुरानी वर्ण व्यवस्था की झलक भी यहां मिलती है कि जाति जन्म से नही कर्म से होती है. नैन सिंह रावत को पंडित उनके ज्ञान की वजह से कहा गया, वह एक शिक्षक भी थे.

नैन सिंह रावत (21 अक्टूबर 1830 – 1 फरवरी 1882) 19वीं सदी की शुरुआत में भारत के पहले खोजकर्ताओं में से थे. उन्होंने ब्रिटिश सरकार के लिए हिमालय में कई खोज की थी. वह कुमाऊं की जौहर वैली से थे. उन्होंने तिब्बत के लिए नेपाल से होकर जाने वाले ट्रेड रूट का मानचित्र तैयार किया. उन्होंने ही पहली बार ल्हासा का स्थान और ऊंचाई निर्धारित की, और ब्रह्मपुत्र नदी के प्रमुख और बड़े हिस्से को मानचित्र पर लेकर आए.

शुरुआती जीवन

राय बहादुर नैन सिंह रावत ( Nain Singh Rawat ) का जन्म जौहर घाटी के मिलम गांव में 1830 में हुआ था. मिलम ग्लेशियर से ही गौरीगंगा नदी का उद्गम भी होता है. कुमाऊं में चंद राजवंश के शासनकाल के दौरान रावतों ने ही जौहर घाटी पर राज किया था. इसके बाद यहां गोरखा राजवंश की स्थापना हुई. 1816 में अंग्रेजों ने गोरखाओं को पराजित किया लेकिन हस्तक्षेप न करने की नीति का पालन करते हुए जौहर भोटिया के साथ दोस्ताना संबंध रखा. मशहूर भोटिया खोजकर्ता जौहर गांव से ही संबंध रखते थें.

स्कूल छोड़ने के बाद, नैन सिंह ने अपने पिता की मदद की. वह पिता के साथ तिब्बत में अलग अलग जगहों पर गए, तिब्बती भाषा सीखी, वहां के व्यवहार, संस्कृति से दो चार हुए और तिब्बती लोगों के साथ घुल मिल गए. तिब्बती भाषा की ये समझ और स्थानीय रीति रिवाजों और नियमों को जान लेने से नैन सिंह को आगे काफी मदद मिली. बेहद सर्द मौसम की वजह से, जौहर घाटी के ऊपर स्थित मिलम और बाकी गांवों के लोग जून से अक्टूबर के दौरान ही यहां रहते थे. इस वक्त में, यहां के पुरुष ग्यानिमा, गार्टोक और पश्चिमी तिब्बत के दूसरे बाजारों में आया जाया करते थे.

पैदल नाप डाला तिब्बत

नैन सिंह रावत ( Nain Singh Rawat ) ने 19वीं सदी में न सिर्फ तिब्बती क्षेत्र को पैदल नाप डाला बल्कि वहां का नक्शा भी तैयार किया. ये वो वक्त था जब तिब्बत के बारे में दुनिया की जानकारी न के बराबर थी. वह दुनिया की नजरों से छिपा हुआ प्रांत था. उसे फॉरबिडन लैंड कहा जाता था. वहां विदेशियों का आना मना था. नैन सिंह न सिर्फ वहां गए बल्कि जाकर तिब्बत का नक्शा भी बना लाए. बड़ी बात ये कि यह सब किसी आधुनिक उपकरण के बिना हुआ.

सर्वे ऑफ इंडिया में जी एंड आरबी के निदेशक अरुण कुमार ने न्यूज 18 को बताया था कि 19वीं शताब्दी में अंग्रेज भारत का नक्शा तैयार करने में जुटे हुए थे. अंग्रेज पूरे भारत का नक्शा बना चुके थे. लेकिन उनके रास्ते में तिब्बत बड़ा रोड़ा बना हुआ था. यहां यह भी ध्यान रहे कि आज गूगल मैप पर आप चुटकियों में नक्शा पता कर लेते हैं लेकिन तब किसी भी तरह का आधुनिक उपकरण नहीं था. रिटायर्ड आईएएस अधिकारी एसएस पांगती पंडित नैन सिंह पर किताब लिख चुके हैं और उन पर शोध भी कर चुके हैं. उन्होंने बताया कि अंग्रेज अफसर तिब्बत को जान पाने में नाकाम हो चुके थे.

पांगती ने बताया कि कई बार नाकाम होने के बाद तत्कालीन सर्वेक्षक जनरल माउंटगुमरी ने तय किया कि किसी अंग्रेज की बजाय किसी भारतीय को वहां भेजा जाए जो तिब्बतियों के साथ व्यापार करने वहां आते जाते रहते थे. इसके बाद ऐसे लोगों की तलाश शुरू की गई जो तिब्बत जाकर वहां की भौगोलिक जानकारी लेकर आ सकें. अंततः 1863 में कैप्टन माउंटगुमरी को 2 ऐसे नौजवान मिलल ही गए. ये थे 33 साल के पंडित नैन सिंह और साथ में उनके चचेरे भाई मानी सिंह रावत.

अंग्रेजों ने बनाई कुशल रणनीति

पांगती ने एक हिंदी वेबसाइट को बताया कि इसके आगे की भी चुनौतियां कम नहीं थीं. आखिर दिशा और दूरी नापने के यंत्र तिब्बत कैसे ले जाए जा सकते थे. ये आकार में बेहद बड़े थे और पकड़े जाने पर तिब्बती रावत बंधुओं को जासूस समझकर मौत की सजा भी दे सकते थे. दोनों भाईयों को ट्रेनिंग के लिए देहरादून लेकर आने का फैसला लिया गया. ये तय हुआ कि दिशा नापने के लिए छोटा कंपास लेकर वे दोनों जाएंगे और साथ में तापमान नापने के लिए थर्मामीटर भी. इन दोनों के हाथ में एक प्रार्थना चक्र भी था जिसे तिब्बती भिक्षुक साथ रखते थे. इसे दूरी नापने के लिए अनूठा तरीका बनाया गया.

अंग्रेजों ने पूरी रणनीति के साथ काम किया. नैन सिंह के पैरों में 3.5 इंच की रस्सी बांध दी गई ताकि उनके कदम एक निश्चित दूरी तक ही पड़ सकें. देहरादून में उन्हें महीनों तक अभ्यास करवाया गया. हिंदू धर्म में प्रार्थना के लिए इस्तेमाल होने वाली 108 कंठ की माला के बजाय उन्हें 100 मनकों की माला दी गई जिससे वह आसानी से गिनती कर सकें. अरुण कुमार कहते हैं कि भले ही वे साधारण उपकरण लेकर चले थे लेकिन उनका हौसला असाधारण था. 1863 में दोनों भाई अलग अलग रास्ते पर चल पड़े. नैन सिंह रावत काठमांडू के रास्ते होते हुए तिब्बत के लिए निकले जबकि उनके भाई मानी सिंह कश्मीर के रास्ते.

हालांकि मानी सिंह पहली ही कोशिश में नाकाम होकर कश्मीर से वापस लौट आए लेकिन नैन सिंह अपने सफर पर बढ़ते गए. वह तिब्बस पहुंचे और पहचान बदलकर बौद्ध भिक्षु के रूप में रहने लगे. वह दिन भर शहरों में घूमते थे और रात में किसी ऊंचे स्थान से तारों की गिनती करते. अपनी गिनतियों को वो कविता के रूप में याद कर लेते थे या कागज पर लिखकर अपने प्रार्थना चक्र में छिपा लेते थे.

ल्हासा और ब्रह्मपुत्र की जानकारी

वह नैन सिंह रावत ( Nain Singh Rawat ) ही थे, जिन्होंने सबसे पहले दुनिया को बताया कि ल्हासा समुद्र तल से कितनी ऊंचाई पर है. उसके अक्षांश और देशांतर क्या है. यही नहीं, उन्होंने ब्रह्मपुत्र नदी के साथ साथ 800 किलोमीटर की पदयात्रा भी कर डाली. उन्होंने ही दुनिया को बताया कि Yarlung Tsangpo और ब्रह्मपुत्र नदी एक ही हैं. सतलुज और सिंधु नदियों के स्रोत के बारे में ही नैन सिंह ने ही दुनिया को सबसे पहले बताया. उनकी वजह से ही तिब्बत का रहस्य दुनिया जान सकी. उन्होंने सबसे बड़ा काम ये किया कि अपनी सूझबूझ और बुद्धिमता से तिब्बत का नक्शा बना डाला. इस दौरान कई बार उन्होंने अपनी जान को खतरे में भी डाला.

नैन सिंह पर ‘सागा ऑफ नेटिव एक्सपलोरर’ नाम की पुस्तक लिख चुके पांगती ने एक हिंदी वेबसाइट को दी गई जानकारी में कहा कि यह बेहद जटिल और मुश्किल था. अन्वेषक होने की वजह से नैन सिंह ने 4 बड़ी यात्राएं कीं. सबसे पहले 1865 में वह काठमांडू होते हुए ल्हासा पहुंचे और कैलाश मानसरोवर के रास्ते वापस 1866 में भारत लौटे. इसके बाद 1867-68 में वह उत्तराखंड के चमोली जिले के माणा पास के रास्ते से तिब्बत के थोक जालूंग पहुंचे, जहां सोने की खदानें थीं. नैन सिंह की तीसरी बड़ी यात्रा शिमला से लेह और यारकंद की थी जो उन्होंने साल 1873-74 में पूरी कीं. पंडित नैन सिंह की आखिरी और सबसे महत्वपूर्ण यात्रा साल 1874-75 में लद्दाख से ल्हासा की थी जहां से बाद में वह असम भी पहुंचे. इस यात्रा के दौरान वह ऐसे इलाकों से गुजरे, जहां पर दुनिया का कोई जीवित शख्स नहीं पहुंचा था.

नैन सिंह को एक एक्सपलोरर (खोजकर्ता) के रूप में ही नहीं याद किया जाता बल्कि मॉडर्न साइंस पर हिंदी में पुस्तक लिखने वाले वो पहले भारतीय थे. उन्होंने अक्षांश दर्पण नाम की एक पुस्तक लिखी जो सर्वेयरों की आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक ग्रंथ की तरह है और उन्हें महत्वपूर्ण जानकारी देती है. ब्रिटिश राज में नैन सिंह के कार्यों को काफी प्रोत्साहित किया गया. ब्रिटिश सरकार ने 1877 में नैन सिंह को बरेली के पास 3 गांवों की जागीरदारी दी. उनके काम को देखते हुए उन्हें ‘कम्पेनियन ऑफ द इंडियन एम्पायर’ का खिताब दिया गया. भारत सरकार ने 140 साल बाद 2004 में उनके नाम पर डाक टिकट जारी किया. 21 नवंबर 2017 को गूगल ने अपने डूडल को नैन सिंह को समर्पित किया.

ऐसे मिला पंडित नाम

यात्रा से लौटने के बाद नैन सिंह अपने गांव के सरकारी स्कूल में शिक्षक के रूप पर सेवा देने लगे. उनका प्रमोशन हेडमास्टर के रूप में कर दिया गया. अब तक उन्होंने कुल 16000 मील की कठिन यात्रा की थी और अपने यात्रा क्षेत्र का नक्शा भी तैयार किया था. उनकी आंखें बहुत कमजोर हो चुकी थीं. उसके बाद भी वो कई वर्षों तक अन्य लोगों को सर्वे और जासूसी की कला सिखाते रहें. उनके नाम के साथ अब पंडित शब्द जुड़ गया था क्योंकि उस समय शिक्षक अथवा ज्ञानी लोगों को पंडित कहने का रिवाज था. अंतिम अभियान का नैन सिंह की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ा.

लंबी, कठिन और दुष्कर यात्राओं के कारण नैन सिंह बीमार रहने लगे थे. सन् 1895 में 65 वर्ष की आयु में, वे तराई क्षेत्र में सरकार द्वारा उपहार स्वरूप दी गई जागीर की देखरेख के लिए गये थे, यहीं पर इस महान अन्वेषक को दिल का दौरा पड़ा और उनका निधन हो गया.

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