Begum Samru : Basilica of Our Lady of Graces से लेकर Gurugram की Mohyal Colony तक, समरू की सल्तनत का पूरा इतिहास
Begum Samru: Farzana Zeb un-Nissa कहिए, Joanna Nobilis Sombre कहिए… या कहिए Begum Samru. आज हम आपको बताएंगे इतिहास पुरानी दिल्ली की उस तवायफ का जो पहले प्रेमिका बनी, फिर बेगम और फिर एक सल्तनत की जागीरदार बन गई. वो भारत में जन्मी एकमात्र ईसाई महारानी भी है. वो दिल्ली की Hiramandi का एक नगीना थी, जिनकी प्रतिभा के किस्से सात समंदर पार तक सुने कहे जाते हैं. Begum Samru ने मुगलों, मराठों और अंग्रेजों के प्रभाव के बावजूद अपने सियासी कौशल से 1778 से 1836 तक यानि 58 साल तक Muzaffarnagar के बुढ़ाना से Aligarh के टप्पल तक के काफी बड़े हिस्से पर राज किया.
चार फुट आठ इंच की बेगम ने 58 साल तक हुकूमत चलाई और जीवन के आखिरी दिनों में धर्म बदलकर ईसाई बन गई. आज हम आपको Begum Samru का जो इतिहास बारे में बताने जा रहे हैं, उसमें एक हिस्से में सरधना का चर्च और queen’s palace है और दूसरे हिस्से में Chandni Chowk की वो हवेली है जिसे वर्ष 1808 में Akbar Shah द्वितीय ने उन्हें एक खास बाग के रूप में तोहफे में दिया था. इसी बाग में हवेली का निर्माण किया गया था. Gurgaon में Begum Samru की सल्तनत का हिस्सा रही उस जगह को भी दिखाया गया है, जहां French major Jean Etienne की कब्र आज भी मौजूद है, ये अफसर Begum Samru की सेना में थे. आइए चलते हैं इतिहास के उस दौर में, जहां आज भी हिंदुस्तान की मल्लिका की निशानियां शान से खड़ी हैं और जानते हैं बेगम की जिंदगी के पन्नों को करीब से…
Begum Samru के इतिहास की सबसे पहली कड़ी में हम आपको लेकर चलेंगे दिल्ली के Chandni Chowk में. वर्ष 1950 में स्थापित Bhagiratha Palace की तंग गलियों से गुजरने पर आपको Central Bank of India का बड़ा ब्रांच दिखाई देता है. हजारों लोग इस मार्केट में हर रोज कदम रखते हैं, लेकिन अगर आप किसी से भी पूछें, तो शायद ही किसी को इस बैंक के गुजरे दौर का किस्सा मालूम हो. जिस बिल्डिंग में आज ये ब्रांच है उसमें कभी Begum Samru की हवेली हुआ करती थी. Chandni Chowk का Bhagiratha Palace अपनी लाइटों के लिए जाना जाता है, लेकिन मार्केट के बीचों बीच खड़े 200 साल पुराने इस महल को मानो आज भी रौशनी की तलाश हो.
बाजार आज इलेक्ट्रॉनिक्स का मकड़जाल दिखता है. लेकिन सफेद पत्थर की ये इमारत कभी देश की सबसे ताकतवर महिलाओं में से एक की हवेली हुआ करती थी. आज चारों तरफ तारों के जाल से ढका ये जर्जर खंडहर कभी नौ खूबसूरत फव्वारों वाली एक सुंदर हवेली थी. इस हवेली में ग्रीक, रोमन और मुगल वास्तुकला शैलियों की झलक देखने को मिलती थी. ये महल चार मंजिला था और इसमें घुमावदार सीढ़ियां और विशाल छतें थीं.
Zebunnissa के पिता का नाम Latif Ali Khan था. जब वो बहुत छोटी थीं, तभी उनके पिता की मौत हो गई थी. इसके बाद लतीफ की पहली पत्नी और बेटे ने उन्हें और उनकी मां को घर से बाहर कर दिया. कुछ दिन बाद Zebunnissa की मां की भी मृत्यु हो गई. फिर Zebunnissa की एंट्री हुई दिल्ली की तवायफ गली में. इसके बाद बेगम समरू की परवरिश Delhi-UP के कोठों में हुई. फरजाना जिस वक्त पुरानी दिल्ली के ही एक कोठे में बड़ी हो रही थीं, भारत उथल-पुथल से गुजर रहा था. ये 18वीं सदी का दौर था. 1707 में Emperor Aurangzeb की मौत के बाद Mughal Empire अपनी ताकत खोता जा रहा था, Nadir shah और अहमद शाह अब्दाली की लूटपाट ने इसे खोखला कर दिया था. हाल ये था कि मुगल शासक शाह आलम द्वितीय का शासन सिर्फ दिल्ली से पालम तक ही सिमट कर रह गया था. इसे देखते हुए एक कहावत भी बनाई गई- Badshah-e-Alam दिल्ली से पालम.
अंग्रेजों का भारत के बड़े हिस्से पर नियंत्रण हो चुका था. Mughal Empire अपने पतन की ओर था. छोटे-छोटे जागीरदार भी मुगलों के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर रहे थे. बगावत को शांत करने के लिए मुगल शासकों ने यूरोप से मर्सनरी यानि भाड़े पर मारकाट करने वाले सैनिक बुलाए थे, इन्हीं से एक था फ्रांस का वाल्टर रेनहार्ट. वो फ्रेंच आर्मी में था, फिर बंगाल भाग आया. यहां स्विस कॉर्प्स में शामिल हुआ लेकिन 15 दिन में उसे भी छोड़ दिया. कुछ दिन इधर-उधर काटे फिर मोटी कमाई के लालच में Bengal के Nawab Mir Qasim से आ मिला. वर्ष 1763 में रेनहार्ट ने अंग्रेजों में खौफ पैदा कर दिया. उसने Patna में डेढ़ सौ अंग्रेज मार दिए थे. तब से रेनहार्ट को ‘Butcher of Patna’ कहा जाने लगा.
बक्सर की लड़ाई के बाद Reinhardt Badshah shahआलम II के वजीर मिर्जा नजफ खान की सेना में शामिल हो गया. उसे Meerut की सरधना जागीर इनाम में दी गई. रेनहार्ट को भारत में नाम मिला ‘समरू’.
एक ओर रेनहार्ट की जाबांजी के किस्से मशहूर हो रहे थे, दूसरी ओर Delhi के एक कोठे पर फरज़ाना ज़ेब उन-निसा के दीवाने बढ़ रहे थे. भाड़े के सैनिक दिल्ली आते, तो यहां जरूर आते. एक रोज वॉल्टर रेनहार्ड सोम्ब्रे भी लड़ाई के बाद दिल्ली में रुका हुआ था. एक दिन वॉल्टर सौम्ब्रे भी चावड़ी बाजार के रेड लाइट एरिया में एक कोठे पर पहुंचा। जहां तबले की थाप पर थिरकती नाजुक कद-काठी की एक खबूसरत लड़की पर उसकी नजर ऐसे बंधी की वॉल्टर हमेशा के लिए उसी का हो गया.
14 साल और साढ़े चार फुट की उस खूबसरत नैन नक्श वाली लड़की का नाम था ‘फरजाना’. यहीं से फरजाना की जिंदगी बदलनी शुरू हो गई. फरजाना भी वॉल्टर के प्यार में पड़ चुकी थी. जहां भी वॉल्टर जाता फरजाना साथ जाती. वह सोम्ब्रे के पार्टनर के रूप में रहने लगीं. लखनऊ, रुहेलखंड, भरतपुर और आगरा सहित वह हर जगह सोम्ब्रे के साथ गई और लड़ाई में हिस्सेदारी करतीं.
Begum Samru ने 1765 में वाल्टर रेनहार्ड सोम्ब्रे से शादी की. समरू उनके पति रेनहार्ड्ट के सोम्ब्रे उपनाम का अपभ्रंश है, वजह ये थी कि भारतीय लोगों को सोम्ब्रे बोलने में कठिनाई होती थी, लिहाजा सोम्ब्रे बन गया समरू. और जब फरजाना की उससे शादी हुई तो वो कही जाने लगीं Begum Samru.
वॉल्टर के साथ फरजाना Meerut के सरधना आ गईं और अब वह बेगम समरू हो चुकी थीं. लेकिन 1778 में वॉल्टर की अचानक मौत हो गई. इसी दौरान शाह आलम द्वितीय ने तकरीबन चार हजार सैनिकों की रजामंदी के बाद बेगम समरू को सरधना का जागीरदार बना दिया गया.
1836 में बेगम समरू की मौत के साथ ही दिल्ली की इस हवेली ने भी अपना गौरव खोना शुरू कर दिया. 1847 में उनके दत्तक पुत्र ने हवेली को बेच दिया और तब यहां ‘दिल्ली बैंक’ बनाया गया।विद्रोह के दौरान यहां तोड़फोड़ हुई. ब्रिटिश मैनेजर जॉर्ज र्स्फोर्ड (George Beresford) को उनके परिवार के साथ मार दिया गया था. विद्रोह के बाद इसे Lloyds Bank Limited जैसे दूसरे बैंकों को लीज पर दे दिया गया था. 1940 में इसे लाला भागीरथ मल ने खरीद लिया. वही भागीरथ मल जिनके नाम पर आज भी इस मार्केट को जाना जाता है.
Begum Samru की जागीरदारी || Jagirdari of Begum Samru
हम आपको बताते हैं Gurugram की Mohyal Colony में और बताएंगे Begum Samru की जागीरदारी के बारे में, बात करेंगे उनके सैन्य कौशल की और बताएंगे कि उनके दौर की कौन सी निशानी आज भी यहां मौजूद है.
सेक्टर 40 में Mohyal Colony के एक पार्क में स्मारक आज भी गुजरे दौर की गवाही देता है. 19वीं सदी के इस इतिहास के बारे में कालोनी के ज्यादातर लोगों को कुछ भी नहीं मालूम. ये वो अवशेष है जिसपे Begum Samru उर्फ़ सोम्ब्रे का नाम लिखा है, और बताता है कि झाड़सा-बादशाहपुर का ये इलाका भी कभी बेगम समरू की सल्तनत के अधीन था.
200 साल पुराना ये स्मारक Jean Etienne को समर्पित है, Jean Etienne बेगम समरू की सेना में काम करने वाले एक French सैनिक थे. एटियेन ने 75 वर्ष की आयु में अपनी मृत्यु तक 35 वर्षों तक बेगम समरू की सेवा की थी. Gurgaon District Gazetteer 1983 के मुताबिक, बेगम समरू ने झाड़सा और badShahpur के परगना पर भी राज किया था. इतिहासकार KC Jadhav ने एक समाचार पत्र को बताया था कि इस इलाके की अहमियत इसलिए भी है क्योंकि यहां Begum Samru की सेना का कैंटोनमेंट भी था.
समरू की सेना से घबराकर अंग्रेजों ने भी शहर में एक बटालियन तैनात करके छावनी बनाई थी. सालों तक जर्जर रही इस कब्र का कुछ ही वर्ष पहले नवीनीकरण किया गया है.
बात करें बेगम की पूरी जागीर में Muzaffarnagar से Aligarh तक फैले गंगा के दोआबंद सहित सरधना, करनाल, बुढाना, बरनावा, बड़ौत, कुटाना और टप्पल के परगना क्षेत्र शामिल थे. इस जागीर का प्रमुख सीट परगना और प्रशासन की सीट सरधना थी. परगने में 332 गांव शामिल थे. इन परगनाओं के अलावा उनके पास कुछ ट्रांस-यमुना सम्पदाएं भी थीं. इस क्षेत्र में उनकी संपत्ति में Delhi से लगभग 14 मील दूर, लगभग 70 गांव भी शामिल थे.
सरधना की रानी, चार फुट आठ इंच की बेगम समरू दरबार लगाती थीं, हुक्का खींचती थीं. एक वक्त उनकी सेना में 4,000 से ज्यादा सैनिक थे. कम से कम 100 तो विदेशी सैनिक थे जो बेगम समरू के एक इशारे पर किसी की भी जान ले लें.
वह एक कुशल कूटनीतिज्ञ थी और सम्राट के लिए कई सौदे करती थी. इसका एक उदाहरण 1783 में है, जब सिख सैन्य जनरल बघेल सिंह ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया और 30,000 सिख सैनिकों के साथ दिल्ली की सीमा पर डेरा डाल दिया, जहां इन सैनिकों ने डेरा डाला था, वो जगह आज तीस हजारी के नाम से जानी जाती है. तब दिल्ली की गद्दी पर बैठे शाह आलम द्वितीय बेहद भयभीत हो गए थे. डरे हुए बादशाह ने तब बेगम समरू से बातचीत करने के लिए कहा था. समरू को कामयाबी मिली, मुगल सल्तनत हमले से बच गई थी. बदले में दिल्ली में आठ गुरुद्वारे बनाए गए थे.
वर्ष 1787 में, उन्होंने रोहिल्ला सरदार Ghulam Abd al Qadir Ahmed Khan ने जब लाल किले की घेराबंदी की, तब भी समरू ने दिल्ली की मुगल सल्तनत को बचाया.
1783 में, उन्होंने तीस हजारी में सिख जनरल बघेल सिंह के साथ समझौता किया, जिसके तहत शाह आलम द्वारा उदार भुगतान के बदले में दिल्ली पर हमला होने से रोका गया। 1787 में, उन्होंने रोहिल्ला सरदार गुलाम अब्द अल कादिर अहमद खान द्वारा लाल किले की घेराबंदी को एक साहसिक हमले के साथ तोड़ दिया। शाह आलम इतने आभारी थे कि उन्होंने उन्हें फरजंद-ए-अजीजी (जिसका अर्थ है ‘प्यारी बेटी’) या संक्षेप में फरजाना की उपाधि दी।
बेगम समरू के सैन्य कारनामे ऐसे थे, जो अक्सर उन्हें अंग्रेजों के विरोधी के तौर पर दिखाते हैं. 1803 में असाय की लड़ाई में, उन्होंने मराठों के साथ लड़ाई लड़ी. हालाँकि मराठा गठबंधन को हार का सामना करना पड़ा, लेकिन समरू की सेना एकमात्र टुकड़ी थी जो बिखरी नहीं और पीछे नहीं हटी. हालांकि, इस समय तक उन्हें एहसास हो गया कि अंग्रेज उभरती हुई महाशक्ति थे. ये भांपकर उन्होंने अंग्रेजों से करीबी बनाई. इसके बाद वो अपनी स्वायत्तता बरकरार रखते हुए ब्रिटिश सहयोगी बन गई.
Basilica of Our Lady of Graces, जो बेगम समरू के जीवन से जुड़ी सबसे खास जगह है. इसे सरधना के चर्च के नाम से भी जाना जाता है. चर्च से कुछ कदम आगे ठीक सामने St John’s Seminary है, जो बेगम समरू का पैलेस हुआ करता था. हम आगे बढ़ें उससे पहले आइए जानते हैं कि Basilica किसे कहते हैं.
बेसिलिका शब्द ग्रीक शब्द बेसिलिक से निकला है जिसका अर्थ है राजसी या शाही. ये एक सम्मान है जो किसी चर्च को दिया जाता है. ऐसे चर्च या तो बेहद प्राचीन होते हैं या international centres of worship के रूप में चर्चित होते हैं.
सरधना में स्थित Basilica of Our Lady of Graces चर्च का निर्माण कार्य वर्ष 1809 में शुरू हुआ था. चर्च के दरवाजे के पास स्थित इमारत का निर्माण काल 1822 दर्शाया गया है. बताया जाता है कि उस समय इसे बनाने में करीब चार लाख रुपये का खर्च आया था.
इस चर्च को पोप जान (23वें) ने 1961 में Minor Basilica का दर्जा प्रदान किया था. एशिया में 70 से ज़्यादा बेसिलिकाएँ हैं, और एशिया में भारत में सबसे ज़्यादा 28 बेसिलिकाएँ हैं.
Basilica of Our Lady of Graces दिल्ली से करीब 100 किलोमीटर दूर स्थित है. बेगम समरू की कब्र चर्च के अंदर है. उनकी कब्र पर बेगम की सिंहासन पर बैठी 18 फुट ऊंची इटली से लाई गई उनकी संगमरमर की मूर्ति है. उनके अगल बगल भारतीय और यूरोपीय साथी हैं. मूर्ति में उम्रदराज बेगम के हाथ में सरधना की जागीरदारी का करारनामा है. वर्ष 1781 में बेगम समरू ने ईसाई धर्म कबूल कर लिया और फिर उन्हें नाम मिला Joanna Nobilis Sombre का.
उन्होंने सरधना में इस चर्च को बनाने के लिए अपने Italian military engineer Major Anthony Reghelini को नियुक्त किया था. Reghelini ने इसमें Italianate और Islamic styles का मिश्रण दिखाया. बाहर की मीनारें और अंदर दीवारों में जड़े सजावटी पत्थर के काम मुगल डिजाइन से प्रेरित हैं, जबकि गुंबद और संगमरमर का काम रोम के सेंट पीटर्स से प्रेरित है. इसे बनाने में उस समय 4 लाख रुपये खर्च हुए थे. 1822 में चर्च ने अपने दरवाज़े आम जनता के लिए खोल दिए.
बेगम समरू की मृत्यु || death of Begum Samru
Begum Samru की मृत्यु 1836 में लगभग 83 वर्ष की आयु में गुई. उनकी कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपनी ज्यादातर संपत्ति Reinhardt की पहली शादी से हुई संतान के नाम कर दी. हालांकि, फिर भी अंग्रेजों ने ज्यादातर संपत्ति हड़प ली थी. इसका 1953 की दर पर मूल्य लगभग 4 बिलियन अमेरिकी डॉलर था.
चर्च से कुछ कदम आगे ठीक सामने St John’s Seminary है. ये पहले बेगम समरू का पुराना महल था, बाद में इसे Lady Forester अस्पताल के तौर पर और फिर basilica के architect को ठहराने के लिए भी इस्तेमाल किया गया.
ये पैलेस Sardhana में Walter Reinhardt के आने से पहले मौजूद था. मुगल सम्राट ने 1773 में उन्हें जागीरदारी दी, जिसके बाद उन्होंने सरधना को अपनी जागीर की राजधानी के रूप में चुना. बेगम समरू ने भी दिल्ली से आकर अपनी बाकी जिंदगी इसी महल में बिताई. उन्होंने अपने लिए एक और महल बनवाया था, लेकिन उसके तैयार होने के एक साल बाद ही उनका निधन हो गया.
इस महल में अंडरग्राउंड कमरे भी हैं, जहां बेगम गर्मियों की तपिश से बचने के लिए जाती थीं. आज सरधना का जलस्तर उस जमाने से कहीं बेहतर है, क्योंकि गंगनहर का निर्माण बेगम समरू के जीवनकाल में नहीं हुआ था. मॉनसून के बाद क्षेत्र में पानी कम हो जाता है, और कमरो में बहुत गर्मी हुआ करती थी.
जब बेगम अपने खुद के बनाए महल में रहने लगीं, तो उन्होंने ये पैलेस Solaroli नाम के Italian adventurer को दे दिया, वो उनके दरबार में एक प्रभावशाली व्यक्ति बन गया था. इसी इटैलियन के साथ उन्होंने अपनी adopted बेटी Georgiana Sombre की शादी भी की. Georgiana Sombre, David Dyce Sombre की बहन थीं.
Solaroli ने इटली जाने का फैसला किया और इस जगह को आगरा की Catholic diocese को गिफ्ट कर दिया. तब इसे बच्चों को पादरी की शिक्षा देने के लिए इस्तेमाल में लाया जाने लगा. लेकिन अक्सर, जब पादरियों के लिए बुलावा नहीं आता था, तो इसे एक स्कूल के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था. यहीं के लड़कों ने 1846 में सेंट पीटर्स कॉलेज, आगरा में अनाथालय की शुरुआत की थी.
बाद में, UP और Punjab में आए विनाशकारी अकाल के कारण अनाथ हुए बच्चों को st johns में रखा गया. सदी की शुरुआत से लेकर प्रथम विश्व युद्ध तक, भावी पादरियों को ट्रेनिंग की कोशिश फिर की गई. 1949 में आगरा के Archbishop Dr. E. Vanni ने सेमिनरी को फिर से शुरू किया, तब से अभी तक इसमें बच्चों को भविष्य के पादरी के तौर पर ट्रेनिंग दी जा रही है.