India Gate and National War Memorial History and Facts
India Gate and National War Memorial History and Facts : दोस्तों, क्या आपने कभी इंडिया गेट की दीवारों को गौर से देखा है? शायद आपको बस ये एक खूबसूरत स्मारक लगे, जहां लोग पिकनिक मनाते हैं, आइसक्रीम खाते हैं और सेल्फ़ी खींचते हैं. लेकिन यक़ीन मानिए… इंडिया गेट और इसके आसपास की हवा में कई रहस्य और कहानियां छुपी हुई हैं. कभी यहां रेलगाड़ी चलती थी, कभी गाँव बसे थे, एक झील का सपना देखा गया था जो अधूरा रह गया… और यहीं खामोशी से खड़ी है एक मस्जिद, जो हर बदलाव को देखती रही. आइए, आज आपको ले चलते हैं इंडिया गेट की इन अनसुनी कहानियों की सैर पर.
कल्पना कीजिए… आप इंडिया गेट के लॉन पर बैठे हैं, और अचानक कानों में ट्रेन की सीटी गूंजे। हैरानी होगी ना? लेकिन 1920 के दशक में यही हकीकत थी.उस समय यहाँ से एक रेल लाइन गुज़रती थी, जो पुरानी दिल्ली से निकलकर नई बन रही राजधानी से होते हुए सीधे आगरा तक जाती थी.
इस लाइन का इस्तेमाल सामान और यात्रियों दोनों के लिए होता था. लेकिन जब ब्रिटिश सरकार ने तय किया कि यहां राजपथ और इंडिया गेट बनाया जाएगा, तो ये रेल लाइन हटा दी गई। बाद में इसे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की ओर शिफ्ट कर दिया गया. उस दिन से इंडिया गेट का इलाका सिर्फ़ स्मारक और राजधानी का प्रतीक रह गया… और रेल की सीटी हमेशा के लिए खामोश हो गई.
इंडिया गेट के पास ही बेहद अहम मस्जिद है- शाही मस्जिद ज़बीता गंज. आज भले ही ये मस्जिद शांत खड़ी है, लेकिन इसका इतिहास दिल्ली के उतार-चढ़ाव भरे दौर से जुड़ा हुआ है.
सबसे पहले जानते हैं कि ज़बीता खान कौन था, जिसके नाम से ये मस्जिद आज भी जानी जाती है?
ज़बीता गंज और इस मस्जिद का नाम जुड़ा है ज़बीता खान रोहिल्ला से। वो अठारहवीं सदी के एक शक्तिशाली रोहिल्ला सरदार था और अफगान शासक नजीबुद्दौला का बेटा था.
1770–1780 के दशक में मराठों का दबदबा दिल्ली पर बढ़ रहा था.
ज़बीता खान ने दिल्ली और आसपास के इलाक़ों में मराठों से टकराव लिया, खासकर पानीपत की तीसरी लड़ाई में.
वो कई बार मराठों से भिड़ा और अपनी सेना के साथ दिल्ली की रक्षा करने की कोशिश की.
ज़बीता खान की वजह से ही ये इलाका ज़बीता गंज कहलाने लगा। यहाँ उसकी बस्ती और प्रशासनिक ठिकाना हुआ करता था.
शाही मस्जीद ज़बीता गंज केवल मस्जिद का नाम नहीं था, बल्कि दिल्ली में बसा एक इलाका था जहां जबीता खान के लोग, सैनिक और परिवार रहा करते थे. ये जगह एक तरह से रोहिल्ला ताक़त का गढ़ थी. बाद में ब्रिटिश हुकूमत के आने और शहर के बदलते नक्शे ने इस इलाके को मिटा दिया, लेकिन नाम अब भी ज़िंदा है-मस्जिद के ज़रिये.
जब दिल्ली कई आक्रांताओं, युद्धों और बदलावों से गुज़री- मराठों और रोहिल्लों के टकराव से लेकर 1857 के विद्रोह और फिर ब्रिटिश साम्राज्य तक – ये मस्जिद टिकी रही. बाद में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने इसे अपने संरक्षण में ले लिया. आज भी ये मस्जिद भारत गेट के पास इतिहास की गवाही देती है. आज, चारों तरफ़ नए निर्माण और सरकारी इमारतों के बावजूद, शाही मस्जिद ज़बीता गंज हमें यह याद दिलाती है कि दिल्ली की असली ताक़त उसकी यादें और विरासत हैं.
अब ज़रा नज़र डालते हैं खुद इंडिया गेट पर. इसे डिज़ाइन किया था ब्रिटिश आर्किटेक्ट सर एडविन लुटियंस ने. 1931 में बना ये गेट 42 मीटर ऊँचा है और इसका डिज़ाइन पेरिस के Arc de Triomphe से प्रेरित है. लेकिन इसकी असली पहचान है शहीदों की याद.
इंडिया गेट उन 84,000 भारतीय सैनिकों को समर्पित है जो पहले विश्व युद्ध और अफगान युद्धों में शहीद हुए थे. इसकी दीवारों पर 13,000 से ज्यादा सैनिकों के नाम खुदे हुए हैं। जब आप इन नामों को देखते हैं, तो लगता है जैसे ये पत्थर आज भी उन सैनिकों की कहानियां सुनाते हों.
1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद, यहाँ जोड़ा गया अमर जवान ज्योति. यह ज्योति 50 साल तक लगातार जलती रही, शहीदों की याद को अमर बनाए रखने के लिए. हाल ही में इसे नेशनल वॉर मेमोरियल में स्थानांतरित कर दिया गया है, लेकिन इंडिया गेट की पहचान में इसका नाम हमेशा शामिल रहेगा.
इंडिया गेट जहाँ ब्रिटिश काल में शहीद हुए भारतीय सैनिकों की याद में खड़ा किया गया था, वहीं 2019 में बना नेशनल वॉर मेमोरियल स्वतंत्र भारत के वीरों की गाथा सुनाता है। यह स्मारक इंडिया गेट के ठीक पास, कर्तव्य पथ पर स्थित है.
यहां 25,000 से भी ज़्यादा उन भारतीय सैनिकों के नाम दर्ज हैं, जिन्होंने 1947 के बाद से अब तक देश की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए. इसमें शामिल हैं
1947-48 का भारत-पाक युद्ध
1962 का भारत-चीन युद्ध
1965 और 1971 के भारत-पाक युद्ध
1984 का सियाचिन संघर्ष
1999 का कारगिल युद्ध
और आतंकवाद-निरोधी अभियानों व शांति मिशनों में शहीद हुए सैनिक.
स्मारक का डिजाइन भारतीय परंपराओं से जुड़ा हुआ है. इसे चार “चक्री संरचनाओं (concentric circles)” में बांटा गया है –
अमर चक्र (Circle of Immortality) – यहाँ लगातार जलती हुई अमर ज्योति शहीदों की अमरता का प्रतीक है.
वीरता चक्र (Circle of Bravery) – इसमें शौर्य चक्र और परमवीर चक्र विजेताओं की गाथाएं दिखाई गई हैं.
त्याग चक्र (Circle of Sacrifice) – इसमें शहीदों के नाम संगमरमर की दीवारों पर अंकित हैं.
रक्षक चक्र (Circle of Protection) – यह वृक्षों की कतार है जो देश के सैनिकों द्वारा किए जाने वाले संरक्षण का प्रतीक है.
यहाँ जाने पर आपको केवल शिल्पकला ही नहीं, बल्कि देशभक्ति का गहरा अहसास भी होता है। नेशनल वॉर मेमोरियल ये संदेश देता है कि बलिदान का सिलसिला केवल ब्रिटिश काल तक सीमित नहीं था, बल्कि स्वतंत्र भारत के हर युग में हमारे जवानों ने अपनी जान देकर देश की रक्षा की है.
दिलचस्प तथ्य यह भी है कि पहले तक सभी लोग इंडिया गेट की अमर जवान ज्योति पर श्रद्धांजलि देते थे, लेकिन अब प्रधानमंत्री और दूसरे गणमान्य लोग राष्ट्रीय पर्व पर नेशनल वॉर मेमोरियल में शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं.
इंडिया गेट वीरता का प्रतीक है और यहीं पर भारत के वीर स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा भी लगाई गई है. 23 जनवरी 2022 को, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की होलोग्राम प्रतिमा का अनावरण यहां पर पीएम मोदी ने किया था. ये पराक्रम दिवस के अवसर पर किया गया था. ये दिन नेताजी की जयंती के रूप में मनाया जाता है.
इसके कुछ महीनों बाद, 8 सितंबर 2022 को, इस होलोग्राम को हटाकर स्थायी काले ग्रेनाइट की प्रतिमा स्थापित की गई. उसी दिन इसे औपचारिक रूप से राष्ट्र को समर्पित किया गया. इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडिया गेट के पास आयोजित एक समारोह में नेताजी की इस भव्य मूर्ति का उद्घाटन किया.
बता दें कि जिस कैनोपी के नीचे नेताजी की प्रतिमा स्थापित की गई है, वहां इससे पहले ब्रिटेन के पूर्व सम्राट जॉर्ज पंचम की मूर्ति लगी होती थी. ये मूर्ति 1968 तक यहां थी, फिर इसे हटा दिया गया.
कर्तव्य पथ के एक सिरे पर आज भी शान से खड़ी है राष्ट्रपति भवन की भव्य इमारत. इसे कभी वायसराय हाउस के नाम से जाना जाता था. ये भारत की सबसे भव्य और ऐतिहासिक इमारतों में से एक है. इसका निर्माण ब्रिटिश शासन के दौरान भारत के वायसराय यानी गवर्नर जनरल के आधिकारिक निवास के रूप में किया गया था। 1911 में दिल्ली दरबार के अवसर पर जब ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम ने भारत की राजधानी को कलकत्ता (अब कोलकाता) से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की, तब नई राजधानी के लिए एक प्रशासनिक परिसर और वायसराय के निवास की योजना बनी. इस भव्य इमारत की रूपरेखा प्रसिद्ध ब्रिटिश वास्तुकार सर एडविन लुटियन्स ने तैयार की। उन्होंने इसकी वास्तुकला में पश्चिमी क्लासिकल शैली के साथ भारतीय तत्वों का भी सुंदर समावेश किया.
वायसराय हाउस का निर्माण कार्य 1912 में शुरू हुआ और लगभग 17 वर्षों बाद 1931 में पूरा हुआ। यह भवन लगभग 330 एकड़ में फैला हुआ है और इसमें लगभग 340 कमरे हैं, जिनमें दरबार हॉल, अशोक हॉल, राष्ट्रपति का निवास, अतिथि कक्ष और कार्यालय आदि शामिल हैं। भवन का केंद्रीय गुंबद भारतीय और रोमन वास्तुशैली का मिश्रण है और इसके निर्माण में लाल और क्रीम रंग के बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया है। इसके पीछे स्थित है अमृत उद्यान, ये इसकी सबसे सुंदर विशेषताओं में से एक है, जिसे हर साल वसंत ऋतु में आम जनता के लिए खोला जाता है.
भारत की स्वतंत्रता के बाद, 15 अगस्त 1947 को ये भवन भारत के पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन का निवास बना. जब 1950 में भारत गणराज्य बना और डॉ. राजेंद्र प्रसाद पहले राष्ट्रपति बने, तब इस भवन को आधिकारिक रूप से “राष्ट्रपति भवन” का नाम दिया गया.
जब 1911 में ब्रिटिश सरकार ने कलकत्ता से दिल्ली को भारत की राजधानी बनाने का ऐलान किया, तो अंग्रेज़ों के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी- नई राजधानी के लिए जमीन कहां से लाई जाए? उस समय रायसीना हिल और उसके आसपास की पूरी ज़मीन पर कई पुराने गाँव बसे हुए थे। इन गाँवों के किसानों और निवासियों को विस्थापित करके उनकी ज़मीन अधिग्रहित कर ली गई.
मालचा गांव – जहां आज मालचा मार्ग और आसपास का इलाका है.
अलीपुर और भोगल (जंगपुरा के पास) – यहाँ से भी ज़मीन ली गई.
रायसीना गांव – जो राष्ट्रपति भवन (पहले वायसराय हाउस) के पास था.
तुगलकपुर और पीरागढ़ी जैसे छोटे गांव – जिनकी ज़मीन को मिलाकर नई दिल्ली का नक्शा तैयार किया गया.
इंद्रपथ (पुराना इंद्रप्रस्थ क्षेत्र) – जिसका कुछ हिस्सा भी योजना में शामिल हुआ.
ब्रिटिशर्स का प्लान था कि यह नई राजधानी भारत की ताकत और उनकी सत्ता का प्रतीक बने। इसलिए उन्होंने चौड़ी-सीधी सड़कें, बड़े-बड़े गोल चौराहे (राउंडअबाउट), बगीचे और यूरोपियन स्टाइल की सरकारी इमारतें बनाने की योजना बनाई। यही कारण है कि नई दिल्ली को आज भी “लुटियन्स दिल्ली” कहा जाता है.
गांवों के लोग, जो किसान या छोटे व्यापारी थे, उन्हें उनकी ज़मीन से हटाया गया और कई लोगों को पास के इलाकों में बसाया गया. आज भी मालचा गांव, गोल मार्केट और तुगलकाबाद जैसे इलाके अपनी जड़ों से इस इतिहास की गवाही देते हैं.
जब सर एडविन लुटियन्स और ब्रिटिश हुकूमत नई दिल्ली की राजधानी का नक्शा खींच रहे थे, तो उनकी सोच सिर्फ इमारतों तक सीमित नहीं थी. वे चाहते थे कि यह राजधानी यूरोप के बड़े-बड़े शहरों जैसी दिखे, जहाँ न सिर्फ सत्ता के प्रतीक खड़े हों, बल्कि लोगों को घूमने-फिरने और मनोरंजन का भी अनुभव मिले.
इसी सोच के तहत, इंडिया गेट के सामने एक विशाल झील (lake) बनाने की योजना बनी. अंग्रेज़ों का सपना था कि इस झील में लोग नौकायन (boating) कर सकें. राजपथ से आते हुए मेहमानों की नज़र सबसे पहले इंडिया गेट पर पड़े और उसके सामने चमकती पानी की लहरें राजधानी की खूबसूरती में चार चांद लगा दें. यह झील दिल्ली के लिए न सिर्फ एक लैंडमार्क होती, बल्कि उस दौर का सबसे बड़ा आकर्षण भी.
लेकिन सपनों की यह झील कभी हकीकत न बन सकी। इसके पीछे कई बड़ी वजहें थीं –
दिल्ली की मिट्टी (soil condition) – दिल्ली की जमीन रेतीली और कठोर है, जिसमें पानी रोकना बेहद मुश्किल था। रिसाव की समस्या इतनी बड़ी थी कि झील लंबे समय तक टिक ही नहीं पाती.
पानी की कमी (water scarcity) – उस दौर में दिल्ली में पानी की भारी किल्लत थी। अंग्रेज़ों को यह चिंता सताने लगी कि झील बनाएंगे तो पानी कहां से आएगा और कैसे इसे भरा रखा जाएगा.
रखरखाव (maintenance) – इतनी बड़ी झील का रखरखाव करना आसान नहीं था। दिल्ली की गर्म जलवायु में पानी का सूखना और गंदगी का जमना भी एक बड़ी चुनौती थीं
आख़िरकार अंग्रेज़ों ने झील का विचार छोड़ दिया और उसकी जगह बाग़-बगीचे और हरे-भरे लॉन बना दिए. यह बाग़ आज भी इंडिया गेट की पहचान हैं। दिन में परिवार पिकनिक मनाने आते हैं और शाम को ठंडी हवाओं के बीच यहाँ टहलने वालों की भीड़ लगी रहती है.
यानी झील का सपना अधूरा रहा, लेकिन उसकी जगह बने ये बाग़ दिल्ली की जिंदगी का अहम हिस्सा बन गए. अगर वह झील बन जाती, तो शायद आज इंडिया गेट का नज़ारा और भी अलग होता – लेकिन कभी-कभी अधूरे सपने ही किसी जगह को और रहस्यमयी बना देते हैं.
इंडिया गेट को पहले ऑल इंडिया वॉर मेमोरियल कहा जाता था.
आज़ादी के बाद से यहाँ पिकनिक का ट्रेंड शुरू हुआ और आज तक जारी है.
50–60 के दशक में यहाँ तांगा सवारी करना दिल्ली की शान माना जाता था.
रात की रोशनी में नहाया इंडिया गेट आज भी दिल्ली के सबसे रोमांटिक नज़ारों में गिना जाता है.
इंडिया गेट और राष्ट्रपति भवन के बीच फैला हुआ राजपथ अब नए नाम कर्तव्य पथ से जाना जाता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2022 में इसका उद्घाटन किया था. यह सिर्फ़ नाम बदलना नहीं, बल्कि राजधानी की धड़कन कहे जाने वाले इस रास्ते को एक नई सोच और आधुनिक सुविधाओं से जोड़ने का प्रयास है.
कर्तव्य पथ पर अब वॉकिंग ट्रैक्स और चौड़े फुटपाथ बनाए गए हैं ताकि लोग आराम से टहल सकें और जॉगिंग कर सकें। पहले यहाँ सड़क किनारे गाड़ियां खड़ी रहती थीं, लेकिन अब पार्किंग को व्यवस्थित किया गया है. इसके साथ ही यहाँ बैठने के लिए बेंच, साफ़-सुथरे लॉन, और बड़े पेड़ों की छाया में ठहरने की जगह बनाई गई है.
लोगों की सुविधा के लिए यहां पब्लिक टॉयलेट्स और ड्रिंकिंग वॉटर कियोस्क लगाए गए हैं. साथ ही, छोटे-छोटे स्टॉल्स के लिए अलग जगह तय की गई है, ताकि यहां आने वाले लोग खाने-पीने का मज़ा भी ले सकें लेकिन भीड़-भाड़ और अव्यवस्था न फैले। रात के समय यहाँ खूबसूरत लाइटिंग होती है जो इंडिया गेट और पूरे कर्तव्य पथ को एकदम जादुई बना देती है.
कर्तव्य पथ पर अब यह सख़्ती भी है कि यहां किसी तरह की गंदगी या अनधिकृत ढांचा न बने. यह सिर्फ़ सरकारी समारोहों के लिए नहीं, बल्कि आम जनता के लिए भी एक ओपन स्पेस है जहां लोग परिवार के साथ पिकनिक मना सकते हैं, टहल सकते हैं और दिल्ली की खुली हवा का आनंद ले सकते हैं.
सबसे अच्छी बात यह है कि यहाँ का माहौल अब ज़्यादा “पीपल फ्रेंडली” और सुरक्षित है. इंडिया गेट और कर्तव्य पथ अब सिर्फ़ सत्ता का प्रतीक नहीं, बल्कि जनता के मिलने-जुलने और घूमने-फिरने की जगह बन चुका है.
अगर आप इंडिया गेट या नेशनल वॉर मेमोरियल जाने का प्लान बना रहे हैं तो मेट्रो सबसे आसान और तेज़ साधन है.
सेंट्रल सेक्रेटेरियट (Central Secretariat Metro Station) – (येलो और वायलेट लाइन) – यह इंडिया गेट के सबसे नज़दीक है, लगभग 2 किमी। आप यहां से ऑटो/रिक्शा या पैदल भी जा सकते हैं.
खान मार्केट मेट्रो स्टेशन (Khan Market, Violet Line) – यहां से दूरी लगभग 2.5 किमी है.
लोक कल्याण मार्ग (Lok Kalyan Marg, Yellow Line) – लगभग 3 किमी दूर.
पर्यटक आमतौर पर सेंट्रल सेक्रेटेरियट तक मेट्रो से जाते हैं और फिर इंडिया गेट तक ऑटो या पैदल पहुंचते हैं.
तो अगली बार जब आप इंडिया गेट जाएं, तो सिर्फ़ फोटो ही न लें. उसकी दीवारों पर लिखे नाम पढ़िए, उन गांवों की कल्पना कीजिए जो यहां कभी बसे थे, उस रेलगाड़ी की सीटी सुनने की कोशिश कीजिए जो कभी यहीं से गुज़रती थी… और उस अधूरी झील को याद कीजिए जो कभी बनने वाली थी. इंडिया गेट सिर्फ़ एक स्मारक नहीं, बल्कि दिल्ली के बदलते इतिहास और भारत के शहीदों का अमर प्रतीक है.
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