Tuesday, March 19, 2024
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Vasco Da Gama History – हज यात्रियों का वो जहाज जिसे क्रूर वास्को डी गामा ने उड़ा दिया था

Vasco Da Gama | India Trade Route | India Spice Trade History | Christian History in India | Haj Pilgrim Historical Story | India Historical Spice Trade journey | वास्को डी गामा (vasco da gama) को एक महान नाविक, एक चतुर नेता और इतिहास पुस्तकों में एक राजनयिक माना जाता है. हालांकि कुछ लोग उसे समुद्री डाकू की संज्ञा भी देते हैं. लेकिन इस लेख में हम आपको वास्को डी गामा के ऐसे कृत्य के बारे में बताना चाहेंगे जो आज भी उसकी कहानियों पर सबसे बड़े दाग जैसा है. कैसा था गामा (vasco da gama) का रूप? क्या उसके पास हिंसक तरीके थे? यदि आप इतिहास की किताबों में गहराई से अध्ययन करते हैं तो आप पाएंगे की उसके पास वास्तव में हिंसक तरीके थे जो कई बार उसने प्रदर्शित किए, हालांकि यह उसके घर और व्यापारिक जमीन से बहुत दूर थे लेकिन थे और वो भी बंदूक की ताकत के दम पर थे. यद्यपि यह अनियंत्रित हालांकि कच्चे और कई बार दुखद रूप से हिंसक नाविक अपने राजा के प्रति वफादार था और उसकी मृत्यु तक निडर साबित हुआ। यूरोप की आजकल की कानूनी गड़बड़ी और हिंसा से, वह अपने कार्यों के लिए जेलों में घूम रहा होगा.

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वास्को डी गामा (vasco da gama) हिंसक था लेकिन बावजूद इसके अपने राजा के प्रति वफादार था. वह अपनी मौत तक अपनी निडरता को साबित भी करता रहा. फिर यह बहुत समय पहले था, जब ‘शायद’ शब्द सही हुआ करता था और बंदूक की ताकत से इसे साबित किया जाता था. बेईमान तरीके से लड़े जाने वाले युद्ध भी इसमें बड़ा किरदार निभाते थे. वास्को डी गामा (vasco da gama), आखिरकार, 1497 के बाद हुए घटनाक्रमों में खुद को निर्दयी, एक विचार वाला, चालाक, संदिग्ध साबित कर चुका था. संजय सुब्रमण्यम की किताब सिस्टमैटिक यूज ऑफ वायलेंस एट सी पुर्तगालियों के आगमन के बाद की बातें बताती है.

आइए पहले कुछ परिप्रेक्ष्य समझ लें. वास्को डी गामा (vasco da gama) 1498 में कालीकट आया और लौट गया. कुछ मुद्दों ने उसके विरोधियों को उसके खिलाफ खड़े होने की वजह दी, इसमें से एक उसकी घोषणा कि मालाबार ईसाईयों की सरजमीं है, थी और दूसरी कई राजा अदालतों में कालीकट को गामा की खोज के रूप में स्वीकार नहीं किया जाना था. लेकिन गामा अपने हुनर और काबिलियत के दम पर जल्द ही लिस्बन में चर्चित नाम बन चुका था. यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि इसी कालखंड में भारत और चीन के लोगों को अफ्रीका की पूरी जानकारी थी. यह वो वक्त था जब स्पेन और पुर्तगाल सहित बाकी यूरोपीय देश भू-मध्यसागर के किनारों पर नजरें गड़ाए बैठे थे. चीनी जहाज पुर्तगालियों के जहाजों की तुलना में अधिक आधुनिक और अधिक बड़े व उन्नत थे. 15वीं शताब्दी में चीन में एक नक्शा भी तैयार कर लिया गया था.

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इस नक्शे में अफ्रीका को एक ट्राएंगल के रूप में दिखाया गया था. यही वो दौर था जब भारतीय व्यापारियों के जहाज भी बड़ी संख्या में भारतीय और चीनी समुद्र में घूम रहे थे. निकोलो दी कोंटी ने इन विशाल भारतीय जहाजों को देखा था और उन बंदरगाहों का मुआयना भी किया था. ये जहाज कई मंजिल ऊंचे थे. जहाजों में ही बंद किए जाने वाले दरवाजों वाले केबिन और टॉयलेट भी थे. जहाज के डेक पर मसालों और सब्जियों की खेती भी की जाती थी. यूरोप का बड़े से बड़ा जहाज भी भारत और चीन के व्यापारी जहाजों की आगे कहीं ठहरता नहीं था.

दुनिया को आपस में बांट लेने के बाद पुर्तगाल और स्पेन नए स्रोतों की खोज में जुट गए थे. कोलंबस पश्चिम की ओर से पूरब में पहुंचने की कोशिश कर रहा था. उसने गलती ये कर दी कि पृथ्वी की परिधि को कम आंक लिया था. वह टोलेमी के नक्शे पर ही चल रहा था लेकिन अरबी मीलों को इतालवी मीलों में नाप रहा था जो कि तुलना में काफी छोटे होते हैं. 15वीं शताब्दी में यूरोपीय खगोलविज्ञानियों को पृथ्वी की संरचना, नक्शे, दूरी की जानकारी कम थी लेकिन इस वक्त में अफ्रीका, खासतौर से मिस्र, अरब, भारत आदि इन मामलों में यूरोप से काफी आगे थे. यूरोप के देश जिस मामले में दुनिया से आगे थे वह थी उनकी लड़ाकू क्षमता. पुर्तगाल, स्पेन, जिनीवी, वेनिस, इटली के शहर, इन सभी जगहों से निकलने वाले व्यापारी भी लड़ाकू योद्धा होते थे. लगातार लड़ाइयों की वजह से उनके शस्त्रागार भी उन्नत थे. उस दौर में अगर कोई व्यापारी भारत से काले मिर्च का जहाज लेकर यूरोप पहुंच जाता था तो उसका स्वागत किसी साम्राज्य के नायक की तरह होता था और वह अपनी जिंदगी उस काली मिर्च के दम पर ऐशो आराम से काट सकता था.

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इन दिनों समुद्र में लूटमार की घटना इतनी आम हो चली थी कि समुद्री डाकुओं को भी व्यापारी की संज्ञा दे दी जाती थी. समुद्री अभियानों में संघर्ष ने यूरोपीय व्यापारियों को विशेषज्ञ बना दिया था. क्रूरता और नृशंसता उनकी पहचान बन गई थी. यही बात वास्को डी गामा पर भी लागू होती थी. वास्को डी गामा (vasco da gama) को भारत के समुद्री रास्तों के खोजकर्ता के अलावा अरब सागर के महत्वपूर्ण नाविक और ईसाई मजहब के रक्षक के रूप में जाना जाता है. उसकी प्रथम और बाद की यात्राओं के दौरान लिखे गए घटनाक्रम को सोलहवीं सदी में अफ्रीका और केरल के जनजीवन का अहम दस्तावेज माना जाता है. वास्को डी गामा काफी हिंसक प्रवृति का शख्स था. उसे जल्द ही क्रोध आ जाया करता था.

समुद्री सफर पर निकलने से पहले वह 1490 के दशक में साइन, पुर्तगाल में एक योद्धा था. वह सैंटियागो का नैष्ठिक सामंत था और 2 रियासतों से राजस्व भी संग्रह किया करता था. पुर्तगाल के राजा मैनुएल ने भारत की खोज के लिए 4 नौकाओं वाले दल का विचार रखा था. इस दल का मुखिया वास्को डी गामा (vasco da gama) था. वास्को डी गामा का चयन अप्रत्याशित था क्योंकि आसपास की लड़ाइयों के अलावा उशे किसी बड़े सामुद्रिक चुनौतीपूर्ण कार्य का अनुभव नहीं था. लेकिन क्योंकि वह राजा का विश्वस्त था, उसे यह कमान सौंप दी गई.

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अभियान पर निकलने से पहले गामा (vasco da gama) के 3 जहाजों पर क्रूसेडवाले क्रॉस का झंडा लहरा रहा था और उसे विदा करने के लिए भारी संख्या में लोग आए थे. वास्को डी गामा को पुर्तगाल के राजा ने भारत के ईसाई (उसे विश्वास था कि भारत में ईसाई राजा है) राजा और प्रेस्टर जॉन के लिए एक पत्र भी दिया था. यह पत्र अरबी औप पुर्तगाली भाषा में थे.

अपने इस अभियान पर वास्को डी गामा (vasco da gama) अपने साथ भोजन की अच्छी खासी व्यवस्था लेकर निकला था. उसके साथ भोजन सामग्री, जिंदा मुर्गे व बकरे, अनेक नक्शे, रेतघड़ियां आदि चीजों के साथ साथ 20 छोटी बड़ी तोपें और भारी गोला बारूद था. उसके साथ बढ़ई, लुहार, आदि कारीगरों के साथ साथ अफ्रीकी दासों की भी बड़ी संख्या थी. एक व्यक्ति को पूरी यात्रा का वृत्तांत लिखने के लिए भी नियुक्त किया गया था, उसने अपना काम अच्छे ढंग से किया भी लेकिन उसका नाम गुमनाम रहा.

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भारत पहुंचने के क्रम में वास्को डी गामा रास्ते भर में मारकाट और लूटमार मचाता रहा. साल 1502 में वास्को डी गामा (vasco da gama) का एक सहयोगी लिखता है, हमने मक्का के एक जहाज पर कब्जा कर लिया. इसपर 380 लोग सवार थे. इसमें स्त्री, पुरुष और बच्चे थे. हमने उनसे 12000 डुकैट (यूरोप में प्रचलित सोने की मुद्रा) और कम से कम 10000 डुकैट मूल्य का सामान लिया और फिर लोगों सहित उस जहाज को गन पाउडर से उड़ा दिया. यह मिरी जहाज था. इसकी कहानी रोंगटे खड़े कर देने वाली है.

अफ्रीका के पूरे रास्ते में वास्को डी गामा का दल मुश्किलों से जूझता हुआ निकला. उन्हें आशा थी कि ईसाई राज्य उत्साह से उनका स्वागत करेंगे लेकिन केप ऑफ गुड होम्स और मोजांबिक तक उसकी उम्मीद पर पानी फिरता रहा. मोजांबिक से पहले उन्हें जो भी अफ्रीकी आबादी मिली वह काफी गरीब और बाकी दुनिया से कटी हुई थी. यहां तक तो वैसे पुर्तगालियों की धौंस थी लेकिन मोजांबिक में उन्हें समृद्धि की झलक दिखाई दी. आशा के विपरीत यहां कोई ईसाई नहीं था बल्कि मोजांबिक में तो मुस्लिमों का शासन था.

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वहां के सुल्तान ने उनसे कुरआन दिखाने के लिए कहा. सुल्तान उन्हें तुर्क समझ रहा था. गामा के दल ने जो उपहार दिया, सुल्तान उनसे भी खुश नहीं हुआ. वे बड़े ही सस्ते आभूषण और टोपियां वगैरह थीं. गामा और उसके साथियों ने खुद को मुस्लिम दिकाते हुए अपने शस्त्रास्त्रों से उसे प्रभावित कर लिया लेकिन जल्द ही उनका भेद खुल गया. छोटे से संघर्ष के बाद गामा वहां से कठिनाई से रास्ते के लिए पीने का पानी लेकर भाग सका.

हिंदुओं से पहली भेंट
मोजांबिक से चलकर वे मोंबासा पहुंचे, यहां उनकी कुछ लोगों से भेंट हुई. जिसे वे ईसाई समझ रहे थे, उन लोगों ने उन्हें कागज का टुकड़ा दिखाया, जिसपर चित्र बना हुआ था. पुर्तगालियों को यह श्रद्धा की वस्तु जैसी लगी लेकिन जिसे वे ईसाई समझ रहे थे, वे वास्तव में हिंदू थे, जिनका उन्होंने अब तक नाम नहीं सुना था और चीज चित्र को वे किसी पवित्र भूत को चित्र समझ रहे थे, वह हिंदुओं के देवताओं का चित्र था. मोंबासा में भी वास्को डी गामा (vasco da gama) के दल को लूटने और बंदी बना लिए जाने की कोशिश की गई.

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पुर्तगाली दल मोंबासा से भी भागकर मलिंदी पहुंचा. मलिंदी में उनकी भेंट हिंदू व्यापारियों के एक दल से हुई. हालांकि वे उन्हें ईसाई समझ रहे थे. पुर्तगालियों ने उन्हें जीसस और उनक मां का चित्र दिखाया और उन्होंने उस चित्र पर लौंग, मिर्च आदि वस्तुएं चढ़ाई तथा प्रार्थना की. पुर्तगालियों ने उनके सम्मान में आकाश में तोप के गोले दागे. इससे उत्साहित होकर भारतीयों के दल ने कृष्णा, कृष्णा के नारे लगाए लेकिन पुर्तगालियों को लगा की वे क्राइस्ट, क्राइस्ट के नारे लगा रहे हैं.

वृत्तांत लेखक ने दर्ज किया है कि वे भारतीय काफी कम वस्त्र पहनते थे और वे गौमांस नहीं खाते थे. एक अन्य वर्णन में कहा गया है कि वे लोग शुद्ध शाकाहारी थे जो कि पुर्तगालियों को काफी आश्चर्यजनक प्रतीत हुआ था.

(इस लेख को लिखने में रवि शंकर की किताब ‘भारत में यूरोपीय यात्री’ से अंश लिए गए हैं. ये बुक अमेजन पर उपलब्ध है. लिंक यहां पाएं)

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